पंडित नैन सिंह रावत ने 19वीं शताब्दी में बिना किसी आधुनिक उपकरण की मदद के पूरे तिब्बत का नक्शा तैयार कर लिया था। उनके इस काम के लिए अंग्रेजी हुकुमत से उन्हें बहुत सम्मान मिला। सर्वेक्षण के क्षेत्र में दिया जाने वाले सबसे ऊंचा सम्मान 'पेट्रोन गोल्ड मैडल' पाने वाले नैन सिंह इकलौते भारतीय हैं।
लेकिन उत्तराखंड के सीमावर्ती गांव से निकलने वाला एक अनपढ़ कुली कैसे इतना बड़ा सर्वेकार बना?
आज से डेढ़ सौ साल पहले वह भारत की सुदूर सीमा से लगे एक गांव से, तिब्बत की ओर निकले। उनका काम था तिब्बत का नक्शा बनाना, लेकिन कोई उपकरण तो था नहीं इसलिए उन्होंने एक कमाल का रास्ता निकाला!
पंडित नैन सिंह के हाथों में एक माला रहती थी। यूं तो माला में 108 मनके होते हैं, लेकिन इस माला में 100 मनके थे। और 100वां मनका बाकी मनकों से कुछ बड़ा था। हर 100 कदम चलने पर एक मनका वह खिसका देते थे। और इस तरह 100 मनकों पर 10 हजार क़दमों की दूरी तय हो जाती थी। 10 हजार कदम यानी ठीक पांच मील।
अब हर कदम बराबर हो ये जरूरी तो नहीं, इसलिए पंडित नैन सिंह अपने पैरों के बीच एक रस्सी बांधते थे और कुछ इस तरह चलते थे कि एक कदम ठीक 31.5 इंच का हो। और ऐसा करते हुए उन्हें सिर्फ सपाट रास्तों पर ही नहीं बल्कि तिब्बत के पठारों और उबड़ खाबड़ दर्रों पर भी चलना था। ऐसा करते हुए पंडित नैन सिंह 31 लाख 60 हजार कदम चले; और एक-एक कदम का हिसाब रखा।
21 अक्टूबर 1830 को उत्तराखंड के भटकुरा नाम के गांव में जन्मे पंडित नैन सिंह रावत ने अपने जीवन काल में 6 यात्राएं की, जिनकी कुल लम्बाई 42 हजार किलोमीटर थी। इन यात्राओं में उन्होंने लद्दाख से ल्हासा का नक्शा बनाया। ल्हासा की ऊंचाई नापने वाले वो पहले व्यक्ति थे।
इसके अलावा तारों की स्थिति देखकर उन्होंने ल्हासा के लैटीट्यूड और लोंगिट्यूड की भी गणना की, जो आज की आधुनिक मशीनों से की गई गणना के बहुत करीब है। सांगपो नदी के किनारे 800 किलोमीटर चलते हुए उन्होंने पता लगाया कि सांगपो और ब्रहमपुत्र एक ही हैं । नैन सिंह ने सतलज और सिन्धु के उद्गम भी खोजे ।
16 साल तक घर नहीं लौटने पर लोगों ने उन्हें मृत तक मान लिया था, लेकिन पत्नी को विश्वास था कि वह लौटेंगे। वह हर साल उनके लिए ऊन कातकर एक कोट व पैजामा बनाती थीं। जब 16 साल बाद वह वापस लौटे, तो पत्नी ने उन्हें एक साथ 16 कोट व पैजामे भेंट किए ।