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Thursday, July 8, 2021

समाजवाद या राष्ट्रवाद स्वर्गीय चंद्रशेखर जी को पुण्यतिथि पर शत-शत नमन



     10 नवंबर, 1990 से 21 जून, 1991 तक की बेहद अल्प अवधि में भारत के प्रधानमंत्री रहे स्वर्गीय चंद्रशेखर के नाम एक बड़ा ही अनूठा कीर्तिमान दर्ज है । वे भारत के समाजवादी आंदोलन से निकली इकलौती ऐसी शख्सियत हैं, जिसे प्रधानमंत्री पद तक पहुंचने का सौभाग्य प्राप्त हुआ ।


हां,  उत्तर प्रदेश के ऐतिहासिक जिले बलिया के इब्राहिमपट्टी गांव में एक किसान परिवार में जन्मी और ‘क्रांतिकारी जोश’ व ‘गर्म स्वभाव की’ बताई जाने वाली इस ‘आदर्शवादी’ शख्सियत से जुडा एक रोचक तथ्य यह भी है कि प्रधानमंत्री बनने से पहले उसके पास मुख्यमंत्री कौन कहे, किसी राज्य या केंद्र में मंत्री पद संभालने का भी कोई ‘अनुभव’ नहीं था । अलबत्ता, वह 1977 से 1988 तक जनता पार्टी के अध्यक्ष पद पर आसीन रहे थे ।

    ‘चंद्रशेखर जी के प्रधानमंत्री बनने से कहीं ज्यादा महत्व उनकी उस लंबी राजनीतिक यात्रा का है, जिसमें तमाम ऊंचे-नीचे व ऊबड़-खाबड़ रास्तों से गुजरने और परिस्थितियों के एकदम अनुकूल न रह जाने पर सीमाओं में बंधते जाने के बावजूद वे समाजवादी विचारधारा से पल भर को भी अलग नहीं हुए । नेता के तौर पर अपनी जनता को सच्चा नेतृत्व देने के लिए उन्होंने लोकप्रियतावादी कदमों से परे जाकर अलोकप्रिय होने के खतरे तो उठाये ही, अपने समूचे राजनीतिक जीवन में अपनी ही हथेलियों पर कांटे चुभो-चुभोकर गुलाब उकेरते रहे ।’


इस सिलसिले में वे चंद्रशेखर द्वारा 6 जनवरी, 1983 से 25 जून, 1983 तक देशवासियों से मिलने एवं उनकी महत्वपूर्ण समस्याओं को समझने के लिए की गई अपने वक्त की बहुचर्चित ‘भारत यात्रा’ की भी याद दिलाते हैं ।


इस यात्रा में उन्होंने दक्षिण में कन्याकुमारी से नई दिल्ली में राजघाट तक लगभग 4,260 किलोमीटर की मैराथन पदयात्रा की थी. प्रसंगवश, किसी भी भारतीय नेता द्वारा की गई यह अब तक की सबसे बड़ी पदयात्रा है ।


तब केरल, तमिलनाडु, कर्नाटक, महाराष्ट्र, मध्य प्रदेश, गुजरात, उत्तर प्रदेश एवं हरियाणा सहित देश के विभिन्न भागों में लगभग पंद्रह भारत यात्रा केंद्रों की स्थापना की गई थी ।


हमारी आज की पीढ़ी के बहुत कम सदस्य जानते होंगे कि चंद्रशेखर समाजवाद के भारत विख्यात मनीषी आचार्य नरेंद्रदेव के शिष्य थे और इलाहाबाद विश्वविद्यालय में अपने छात्र जीवन में ही समाजवादी आंदोलन से जुड़ गए थे ।


राजनीतिक में उनकी पारी सोशलिस्ट पार्टी से शुरू हुई और संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी व प्रजा सोशलिस्ट पार्टी के रास्ते कांग्रेस, जनता पार्टी, जनता दल, समाजवादी जनता दल और समाजवादी जनता पार्टी तक पहुंचकर खत्म हुई ।


1965 में कांग्रेस की उस वक्त की कथित समाजवादी नीतियों से प्रभावित होकर उन्होंने अशोक मेहता के साथ प्रजा सोशलिस्ट पार्टी छोड़ दी और कांग्रेस में शामिल हो गये तो समाजवादी हलकों में उनकी तीखी आलोचना की गई ।

.चंद्रशेखर के संसदीय जीवन का आरंभ 1962 में उत्तर प्रदेश से राज्यसभा के लिए चुने जाने से हुआ. इसके बाद 1984 से 1989 तक की पांच सालों की अवधि छोड़कर वे अपनी आखिरी सांस तक लोकसभा के सदस्य रहे ।


1989 के लोकसभा चुनाव में वे अपने गृहक्षेत्र बलिया के अलावा बिहार के महाराजगंज लोकसभा क्षेत्र से भी चुने गए थे. अलबत्ता, बाद में उन्होंने महाराजगंज सीट से इस्तीफा दे दिया था ।


1967 में कांग्रेस संसदीय दल के महासचिव बनने के बाद उन्होंने तेज सामाजिक बदलाव लाने वाली नीतियों पर जोर दिया और उच्च वर्गों के बढ़ते एकाधिकार के खिलाफ आवाज उठाई तो सत्तासीनों से उनके गहरे मतभेद पूरी तरह बेपर्दा होकर सामने आये ।


फिर तो उन्हें ऐसे ‘युवा तुर्क’ की संज्ञा दी जाने लगी, जिसने दृढ़ता, साहस एवं ईमानदारी के साथ निहित स्वार्थों के खिलाफ लड़ाई लड़ी ।


इसी ‘युवा तुर्क’ के ही रूप में उन्होंने 1971 में तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के विरोध के बावजूद कांग्रेस की राष्ट्रीय कार्यसमिति का चुनाव लड़ा और जीते ।


1974 में भी उन्होंने इंदिरा गांधी की ‘अधीनता’ अस्वीकार करके लोकनायक जयप्रकाश नारायण के आंदोलन का समर्थन किया. 1975 में कांग्रेस में रहते हुए उन्होंने इमरजेंसी के विरोध में आवाज उठाई और अनेक उत्पीड़न सहे ।


25 जून, 1975 को आंतरिक सुरक्षा अधिनियम के तहत गिरफ्तारी के वक्त सत्तारूढ़ कांग्रेस की केंद्रीय चुनाव समिति तथा कार्यसमिति के सदस्य होने के बावजूद वे इंदिरा गांधी के निशाने पर थे. इसलिए कि वे सत्ता की राजनीति के मुखर विरोधी थे और लोकतांत्रिक मूल्यों व सामाजिक परिवर्तन के प्रति प्रतिबद्धता की राजनीति को महत्व देते थे ।


1977 के लोकसभा चुनाव में हुए जनता पार्टी के प्रयोग की विफलता के बाद इंदिरा गांधी फिर से सत्ता में लौटीं और उन्होंने स्वर्ण मंदिर पर सैनिक कार्रवाई की तो चंद्रशेखर उन गिने-चुने नेताओं में से एक थे, जिन्होंने उसका पुरजोर विरोध किया. बाद में यह कार्रवाई इंदिरा गांधी की जान पर ही आ बनी ।


1990 में विश्वनाथ प्रताप सिंह की जनता दल सरकार के पतन के बाद अत्यंत विषम राजनीतिक परिस्थितियों में वे कांग्रेस के समर्थन से प्रधानमंत्री बने और जल्दी ही उन्हें इस्तीफा देने को मजबूर होना पड़ा ।


इतने विषम पथ का राही होने के बावजूद उन्होंने कभी राजनीतिक रिश्ते इस आधार पर नहीं बनाये कि कौन कितनी दूर तक उनके साथ चला. समूचे राजनीतिक जीवन में वे सिर्फ 1984 में एक चुनाव हारे ।


भूमंडलीकरण के रास्ते आयी गैरबराबरी और बेरोजगारी बढ़ाने वाली जिन आर्थिक नीतियों का कुफल हम आज भोग रहे हैं, उनके बारे में भी उन्होंने समय रहते चेता दिया था ।


उनका सुविचारित और स्पष्ट मत था और कि यह देश जब भी मजबूत होगा, अपने आंतरिक संसाधनों की बिना पर ही होगा. बहुराष्ट्रीय कंपनियों द्वारा किया जाने वाला विदेशी निवेश तो इसके लिए मियादी बुखार में रोटी के टुकड़े जैसा ही होगा ।


स्वदेशी और स्वावलम्बन यानी आत्मनिर्भरता की भावना को प्रश्रय देने के लिए गलत समझे जाने का खतरा उठाकर भी वे स्वदेशी जागरण मंच द्वारा इस उद्देश्य से आयोजित कार्यक्रमों में गए ।


राजनीतिक छुआछूत के तो वे प्रबलतम विरोधी थे और कहते थे कि हममें से किसी को भी यह अधिकार नहीं है कि वह बेवजह दूसरों की देशभक्ति पर शक करता घूमे ।


प्रधानमंत्री के रूप में उन्होंने उस कठिन दौर में भी, जब देश का सोना गिरवी रखने की नौबत सामने थी, भूमंडलीकरण की नीतियों के सामने आत्मसमर्पण नहीं किया ।


वह काम तो उनके बाद 1991 में आयी पीवी नरसिम्हाराव के नेतृत्ववाली कांग्रेस की सरकार ने किया. तब भी चंद्रशेखर ने संसद के अंदर और बाहर उसका जबर्दस्त विरोध किया और उसके खिलाफ जनजागरण अभियान चलाया ।


इतिहास गवाह है कि चंद्रशेखर ने अपने छोटे से प्रधानमंत्रित्वकाल में अयोध्या के जटिल होते जा रहे रामजन्मभूमि बाबरी मस्जिद मसले को उसके सर्वमान्य समाधान के करीब पहुंचा दिया था. उनके समय में इस विवाद के दोनों पक्ष वार्ता की मेजों पर जितने सौहार्द व आपसी समझदारी के साथ आमने-सामने बैठे, उससे पहले या बाद में कभी नहीं बैठेे ।


उनका कहना था कि अगर हम सारे लोग मन में बैठा लें कि अंततः सबको इसी देश में एक दूसरे का सम्मान करते हुए रहना और उसे आगे बढ़ाना है तो कोई ऐसी समस्या नहीं है, जिसका समाधान न निकाला जा सके ।


दुर्भाग्य से प्रधानमंत्री के रूप में उन्हें बहुत कम समय मिला क्योंकि कांग्रेस ने उनका कम से कम एक साल तक समर्थन करने का राष्ट्रपति को दिया अपना वचन नहीं निभाया और अकस्मात, लगभग अकारण, समर्थन वापस ले लिया ।


आज भी उनके बारे में कहा जाता है कि सत्ता में वे भले ही बहुत थोड़े समय के लिए रहे, देश की राजनीति को कोई आधी शताब्दी तक प्रभावित किया ।


उन्होंने कहा था कि देश के दुर्भाग्य से उसके ज्यादातर लीडर डीलरों में बदले जा रहे हैं । कोई भी अलोकप्रियता का खतरा उठाकर जनता को सच्चा नेतृत्व नहीं देना चाहता ।

परन्तु आज उनके अनुयायी समाजवादी न होकर राष्ट्रवादी होगये है  ।


  -राकेश यादव, लखनऊ